Wednesday, December 10, 2008

तुम्हारी कसम मैं नहीं जानती

ज़ीवन किस मोड़ पर ले जा रहा है नहीं जानती
एक सपना आंखों में भर कर चल पड़ी हूं
मन्ज़िल कहां है क्या है ठिकाना? नहीं जानती.

चाहत की सीड़ी पर पांव तो रख दिये हैं
सुनहरे रंग कि चुनर ओड़ ली है सनम
किस्मत मुझे कहं कहां ले जायेगी? नहीं जानती.

सावन के झूले सजा लिये हैं पेड़ों पर
बारिष की बूंदे तन को भिगो रही हैं
तमन्नायें पूरी भी होंगी? नहीं जानती.

पलकों में तुमको बसा लिया है जानम
प्यार में खुद को डुबो दिया है सनम
ज़िन्दगी की ये शाम क्या हसीन होगी? नहीं जानती

छोटा सा घरोंदा बना लिया है तेरे संग
ख़्वाबों की नाव उतार दी है समुन्दर में
सहिल पा भी जाऊंगि कभी? नहीं जानती

आंखें बहुत छोटी हैं सपने बहुत बड़े
सोचती हूं आंखों में इनको भरे भरे .
ये सच है क्या सोचती हूं नहीं जानती

कौन बड़ा है नीरा का नीर या सपनो की तहरीर
कौन ज़्यादा है कौन कम नहीं जानती
तुम्हारी कसम मैं नहीं जानती

3 comments:

विजय तिवारी " किसलय " said...

नीरा जी
नमस्ते

सच्चे प्यार में सराबोर इस रचना का जवाब नही,
जिस कदर आप डूब कर लिखती हैं, निश्चित तौर पर
रचना में गंभीरता का होना स्वाभाविक प्रतीत होता है.
आप की एक और सुंदर रचना के लिए बधाई
आपका
विजय

Vinashaay sharma said...

bahut sunder, koi bhi jindgi ki anjani rhae nahi janta.

SAMVEDNA said...

jkham sharir ke to jald bhar jate hein!par jkham dil ke ta umra yon satate hein,aah bhi nikalti nahin
aur rat-din rulaate hein.!
rachana saar garbhit hai,badhai
bodhi satva kastooriya