Wednesday, January 28, 2009

"वी" अक्षर इतना विनाशकारी क्यूँ ह

"वी" अक्षर इतना विनाशकारी क्यूँ है
क्यूँ इस्स.से मिलते शब्द रोते हैं
वैश्या, विकलांग, विधवा विधुर
दर्द से भरे होते हैं.

वैश्या कोई भी जानम से नही होती
हालत या मजबूरी उससे कोठे पर
ले जाती है., भांध कर घूँगरू
नाचती है रिज़ाति हैं. छ्छूप कर
आँसू बहती है.
दो प्यार के बोलों को तरस
जाती है,
मौत की दुहाई हा रोज़
खुदा से मांगती

विकलांग कोई भी
मर्ज़ी से नही जानम लेता
फिर क्यूँ सब घृणा से देखते है
उससे भी हक़ है
उतना ही अधिकार है
जितना सब को है.
क्यूँ उससे चार दीवारी तक ही
समैट कर रखते है
क्या उससे प्यरा का हुक़ नही
क्या उसके जज़्बातों में
कमी है-----------
या दुनिया का दिल इतना छोटा है
बताओ यह किसका कसूर है.

विधवा
यह श्राप की तरहा अक्षर है
जिससे भी यह जुड़ जाए
उसकी तो ज़िंदगी लाश है
प्यार तो खोती है मासून
लोग उसका जीना भी
चीन लेते हैं
शिनगर तो छ्छूट जाता है
उसका नीवाला भी छीन लेते हैं
बिस्तर पर पति का साथ जाता
कामभक्त बिस्तर भी
चीन लेते हैं

वीसे विधुर होता है
सारे सोते हैं
वो छुप्कर रोता है
बचों से मं सा प्यार
लड़ाता है
दिल में यादैन संजो कर
पत्नी के लिए तड़प ता है
अपनी खुशियाँ
बचों में खोजता है
पत्नी की परच्छाइन को
बचों में देखता है
अक्षर इतना क्यूँ
विनाशकारी है?

हर ओर विनाश ही मिलता है
वी शब्द का कैसा यह विकार है
वैश्या, विकलांग विद वा विधुर
सारे ही इस विनाश का शिकार है

Monday, January 19, 2009

देश की मिट्टी

देश की मिट्टी ऐसी छूटी,
भाग्य मुझे लाया परदेश
घर, रिश्तों से बढीं दूरियाँ,
छूटा मेल-जोल, संदेश

बहन और माँ-बाबा की,
सारी खुशियों की खातिर
सात समुंदर पार बसाया,
धन की चाहत ने आख़िर

प्यारी बहना की शादी कर,
ऊँचे घर पहुँचाना है
परियों सी सुंदर दुल्हन को,
डोली में बैठाना है

लेकर ये सतरंगी सपने,
लगा कमाने मैं पैसे
पता चला न रात-दिनों का,
कई वर्ष गुज़रे कैसे

धन-दौलत तो मिली बहुत सी,
साथ मिली पर ऐसी भूख
जिसमें रिश्ते भावनाओं की,
लहराती बगिया गई सूख

माँ जी-बाबा याद न आए,
आती रहीं दीवाली-होली
न ही आकर मैं शादी में,
उठा सका बहना की डोली

दिल के सारे ज़ज़्बातों को,
हालातों के किए हवाले
दूर देश में बस जाने से,
हुए पराए हम घर वाले

वृद्ध पिता बीमार पड़े हैं,
उसका बेटा पास नहीं
माँ के कंपते हाथ में चिट्ठी,
पर आने की बात नहीं है

कौन नहीं खिंचता आएगा,
माँ-बाबा की यादों से
भला मुकर सकता है कोई,
धरती माँ के वादों से

लेकिन वर्षों की मेहनत का,
यहाँ खड़ा है कारोबार
किसको इसे हवाले कर दें,
सोचा मैने बारंबार

इसी कशमकश में उलझी है,
मेरे जीवन की गाड़ी
शायद रिश्तों के बारे में,
समझ न पाया रहा अनाड़ी

शक्ल देखने को बाबा की,
ये दिल तरसा करता है
माँ के हाथ की रोटी खाने,
ये दिल तड़पा करता है //

सारी खुशियाँ होने पर भी,
कमी देश की खलती है /
उस मिट्टी में वापस आने,
इच्छा सदा मचलती है //
-नीरा
मेरी रचना 'कमजोरी' भी पढ़ें

Tuesday, January 6, 2009

मगर .

तेरी मेरी कहानी
Alag hai-----

तुम पाना चाहती हो
प्यार को
मेरी वो पूजा है
तेरी आँखों में
चाँद बनके वो ठहरा है
मुझे दूर से ही चाँद को
देखना है .

तुमने पहननी
वरमाला है
मुझे फूल भक्तिके है देने
रिश्ते का एक नाम
है तुम्हारा
मेरे लिए एक हर्फ़ भी नही

तुम्हे इंतज़ार
मिलन का है ----
मिल जाए
इसी जनम में .
मुझे मरकर
पार जाना है -------
कुछ हसरतों
को जगाना है .
दोबारा दुनिया
में आना है
मुझको भी पाना है
तुमको भी पाना है
मगर ..??