Friday, May 22, 2009

आखरी सफ़र


बेटे से माँ की दशा देखी न गयी
सामने ही उसके, रंगों की दुर्दशा हो गयी

कैसे गले से मंगलसूत्र छीना गया
हाथों से देखो चूड़ियाँ कैसे तोड़ी गईं

हँसता खेलता परिवार टूट सा गया
अर्थी जब बाबा की निकाली गयी

चीख रही आत्मा रो रहीं ऑंखें
रहे सपने अधूरे, जिंदगी ठहर गयी

चुननी हैं अस्थियाँ , जाना है गंगा,
आखरी सफ़र की यही रस्म रह गयी

- नीरा राजपाल

Thursday, May 14, 2009

जिंदगी उतरन बन गयी

चली थी किस्मत बनने
खुदा से लड़ कर अपने
हाथों की लकीरें लिखवाने
मिला कुछ ऐसा मुझको
जिंदगी वहीं ठहर गयी

ग़रीबी की ज़िल्लत मिली
रात-ओ-दिन -------------
मिला न नया कपड़ा कभी
ना ही मिली कोई गुड़िया
चादर पर लगाकर पैबंद
जमीन पर बिछी चटाई।
ज़िंदगी उतरन बन गयी

हुई छोटी तो क्या हुआ
उमर मेरी भी बढ़ती है
मिलते हैं भैया को नये कपड़े
मुझको देते उतरन हैं
कैसे क़ुदरत खेल खेल गयी

महलों के खवाब न देखे
सपनों की सेज सजाई नहीं
झुग्यों में रहकर मैंने
फिर हिम्मत जुटाई है
अब न ओढूंगी न ही
पहनूगी किसी की उतरन
कहानी नयी लिखी गयी

वक़्त से सीखा है मैंने
ख़ुद पर विश्वास है मुझको
पैबंद लगी चादर ओढ़के
चाहे न कोई जले दिया
पढूंगी चाहे जो भी हो
पौन्चूंगी अपने मुकाम पर
फेंकना उतार उतरन है।
ज़िंदगी ऐसी रच गयी