Friday, February 20, 2009

यह ज़ख्मो के सिलसिले जाने कब टूटेंगे

यह ज़ख्मो के सिलसिले जाने कब टूटेंगे
यह बदनास्सीबी के दाग जाने कब छूटेंगे

चाहे कोई भी लिबास बदल के आये ज़िन्दगी
दर्द के फफोले फिर भी जाने कब फूटेंगे

जिंदगी कम है खुशियों कि ए मेरे खुदा
तन्न्हई याद और सपने जाने फिर कब लूटेंगे

खुदको बांध किया, किवार ना खिड़की खोली
चाहत पर लगाया अंश, रिश्ते जाने कब रूठेंगे

दर्द के घावों ने किए हैं खिलवाड़ “निरा”
मलहम से लगाये पैबंद जाने कब सूखेंगे